शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

मन की तृष्णा

हर क्षण
जीने की आशा में
मरते जाते है हम
एक विचार को
अंतिम सत्य मानकर
उसके पीछे भागते है हम
और जब उसके
निकट पंहुंचते है हम
तो देखते है
सच का दूसरा ही रूप
हमारे सामने खड़ा है ॥
किसी मृग मरिचिका के पीछे
फिर भी भागते रहते है सतत
इसी तरह हम ।
एक सत्य से दूसरे पर
परन्तु समझ नही पाते है
जीवन के उदय से अस्त तक
हम
अपमे मन की तृष्णा को ॥

गिरीशनागड़ा

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