चारो और से
सूना है आकाश
और मेरा मन ||
दूर दूर तक नही दिखाई देता
कोई भी पंक्षी
नही आते है चिडिया और कबूतर
अब मेरी छत पर
दाना चुगने ।
नही पुकारता है
कोई कागा ,मेरी मुंड़ेर पर
और नही आता है कोई
अतिथि देव भी
अब मेरे घर पर ॥
आगंन के विशाल वृक्ष पर बैठकर
ेरो पक्षी शोर और बीट कर
अब नही परेशान करते है दादी को ,
क्योकि
आज न तो मेरी दादी है
न वह वृक्ष है ,न वह आंगन है
न ही वे पक्षी है ॥
हर रोज सुबह ,शाम
़ेर सारी पत्तियो और बीट को ,
बुहारते और बडबडाते हुए
दादी उन पंक्षीयो को
आंगन खराब करने के लिए
बददुआऍं देती थी ॥
तब
उसे नहीं मालूम था कि
उसकी बददुआ इतनी जल्दी
काम कर जायेगी ॥
अब
न तो चिडिया चहचहाती है
न कोयल कुंहुकती है
न कबूतर गुटरगूं करता है
तोता और मैना खामोश है
सोन चिरैया और गोरैया को छोड़ो
कव्वे की कर्कश ॔कांवकांव’ को भी
तरस गये है कान ॥
चारो और ़़़़़क्रित्रमता की है भाँय भाँय
नेता,अभिनेता और धनवानो ने
फैला रखा है चुग्गा चंहुं और,
कहीं भी अवकाश नही है
इन्सान के लिए ॥
आकाश में विज्ञान का विकिरण
लील गया है, पक्षियो को ,
जमीन पर इन मायावी मक्कारो का विकिरण भी
लगता है किसी दिन दिखायेगा अपना जलाल ,
और लील जायेगा हम सभी को ॥
उपर वृक्षो पर
पक्षियो के घोंसले नही बचे है
और, नीचे लगता है
केवल !
केवल,हमारे
खाली घोंसले ही बचेंगें ।
-.गिरीशनागड़ा
रविवार, 16 मई 2010
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