सोमवार, 24 मई 2010

हमारे गरीबी {गरीब} हटाओ के महान कार्यक्रम
व्यंग कविता ....गिरीश नागड़ा






हमारे गरीबी {गरीब} हटाओ के महान कार्यक्रम
व्यंग कविता ....गिरीश नागड़ा


सरकार को चाहिए कि वह
गरीबी की रेखा के नीचे भी
एक रेखा खींच दे
जिसके नीचे आने वाले इन्सान को
इन्सान नही माना जाए
दरअसल वे तो बोझ है
इस धरती पर
इसलिए नही होना चाहिए उन्हे
जिन्दा रहने का अधिकार ॥
सरकार को चाहिए कि वह
खोल दे उनके लिए भी एक बूचड़खाना
जिसमे
उनको पकड, पकडकर
सफाई का पूरा ध्यान रखते हुए,
सफाई से काट़ दिया जाए ॥
जिन्हे गरीबी की महान रेखा के
नीचे रहने योग्य भी नही पाया गया है
जिन्हे
मुफ्त की जमीन,
आवास, सडक,प्रकाश,पानी, नाली
और एकबती का मुफ्त बिजली कनेक्शन
बैंक ऋण, निराश्रित सहायता, ऋण राहत,माफी,
आदि, गरीबो की ,ेरो सुविधाओ का
लाभ लेने की भी
क्षमता, योग्यता,या शउर नही
जिनके पास
अपनी निजी या संयुक्त परिवार की
मलिकियत वाली ,किराये की
अतिक्रमण,या कही कब्जा कर हथियाई गई छत नही
जिनकी अपनी यूनियन नही
जिनको अपने अधिकारो के लिए
बंद, प्रदशर्न,हडताल तक
करने की तमीज नहीं
जिनका कोई धर्म संप्रदाय नही
जिनके पास गरीबी रेखा तक का, राशनकार्ड नहीं
जिनका वोटर लिस्ट में नाम नही
जिनका वोट नही
उनकी गणना नही
उनका समीकरण नही
अर्थात वे इन्सान ही नही ॥
सरकार को चाहिए कि वह
इन्हे इन्सान की परिभाषा से बाहर करे
ओर इन्हे घोषित करे, कृषिफसल
कुंवारी मांए सडको पर अनवरत
उत्पादित करती रहे यह कृषिफसल
ताकि इस कृषिफसल को हमारे बूचडखानो में काट कर
इनके मांस को
पांच सितारा होटलो में
मेरे मुल्क के जागीरदारो, ईदीअमीन के भारतीय संस्करणो को
और उनके सम्मानित मेहमानो को
हमारे देश की विशष्ट डिश के रूप में
सर्व किया जा सके ॥
इस कृषिफसल की खोपडी
और शरीर के अन्य महत्वपूर्ण अवयवो का
निर्यात किया जा सके,विकसित देशो को
जहाँं से प्राप्त हो सके
भारी मा़त्रा मे, कींमती विदेशी मुद्रा
ताकि हम चला सके
और अधिक सुविधा व गति के साथ
गरीबी हटाने के हमारे
महान कार्यक्रम ॥

गुरुवार, 20 मई 2010

कुछ तो शर्म करो

देखो कुछ तो शर्म करो
इस तरह देश देश मत चिल्लाओ
गर्व से अपना सर यूँ न उठाओ
वास्तव में यह देश
खुद नही डूब रहा है
उसे तुम लोग ही डूबा रहे हो
शर्म करो बेशर्मो
उसपर देशभक्ति की कसमे खा रहे हो

तुम ही तो करते हो
नित हत्या ,बालात्कार,तस्करी
सारी चोरबाजारी,रिश्वतखोरी
और हर गलत काम में मुँहजोरी
तुम ही ने तो माँं बहनो के सारे अर्थ गंवा दिए है
तुम ही ने उनके लिए कोठे सजा दिए है
तुम ही तो हो जिसने
चंद लम्हो में सुखी घर संसारो को
पाप के महल बना दिये है
तुम ही ने ना जाने कितने मासूमो को
अपने मतलब की वेदी पर
बलि चा दिया है
तुम ही करते हो
सारी हिंसा तोडफोड आगजनी
तुम ही करते हो देश के प्रति ग़द्दारी
तुम ही करते हो देश को लहूलुहान
फिर भी यह देश तुम्हे अपनी गोद मे
सहला रहा है पुचकार रहा है
प्राणप्रिय की तरह दुलार रहा है
इस आसार उम्मीद में तुम्हारी
सारी गल्तियो को माफ कर रहा है
कि तुम्हे अपनी गल्तिओ का एहसास होगा
और एक दिन तुम सुधर जाओगे
पर लगता है कि तुमने तो
कसम खा रखी है कि
हम नही सुधरेंगें ॥


गिरीशनागड़ा

>ये कलाकार

ये कलाकार
सवेदना ,भावनाओं के
कुशल ,कुशाग्र चितेरे
केश से महीन
ज्ञात अज्ञात विपयो को
कितनी साफगोई से
उठाते है
वे कितने ज्ञानी,श्रेप्ठऔर समर्थ है
धीर गम्भीर गहरे और स्पप्ट है
किन्तु
जिस दिन से उनसे
परिचय हुआ है घनिप्ट
हां उसी क्षण से
वे वह नही रहे
जो अब तक थे ।
हांलाकि
सब कुछ वही है
और प्रतिपल श्रेप्ठ भी
किन्तु सच!
वे , जरा भी नही है वे
भावना और संवेदना के सागर मे डूबे वें
उनकी आंखो मे
देखते हुए आती है शर्म
और लगता है भय
कही वे हमें
समूचा निगल ही न जाये ॥
.

.गिरीश नागड़ा

बुधवार, 19 मई 2010

निर्वंशया

मैने गल्ती की
बुजुर्गो की सलाह मानी
विवाह किया बुजुर्ग खुश हुए
वे देखना चाहते थे
अपना वंश
किन्तु मै अब नही चाहता
अपना आगे वंश
किसी में भी अपना अंश
बस इसीलिए
अपनी
नसबन्दी करा दी
मै कतई नही चाहता
बुजुर्गो की इच्छा के लिए
जो पाप मै कंरू
किसी और को लाकर
वह भी वही अपराध करे
और मेरा वंश ,मेरा अंश
इस दोजख की आग में जले ॥
अब शुभ,शेष क्या है इस संसार में
न कहीं सत्य है न कही शिव न कहीं सुन्दर
है तो चारो और
ह्रिंसा,घृणा,इप्र्या,द्वेष और नफरत
दो ही आवाज सुनाई देती है
मारो या मरो
तुम मारो नही तो कोई
तुम्हे मार डालेगा
मै नही चाहता कि
दुनिया के अंत तक
मेरा खून/मेरा वंश/ मेरा अंश
इस आग में खुद जले
औरो को जलाए
नही मेरे साथ
यह नही चलेगा
मै निरवंशया कहलाउंगा
वह मुझे चलेगा
पर मेरा वंश ,मेरा अंश
अब इस दो जख की आग में नही जलेगा ॥


गिरीश नागड़ा

रविवार, 16 मई 2010

सूना है आकाश और मेरा आगंन

चारो और से
सूना है आकाश
और मेरा मन ||
दूर दूर तक नही दिखाई देता
कोई भी पंक्षी
नही आते है चिडिया और कबूतर
अब मेरी छत पर
दाना चुगने ।
नही पुकारता है
कोई कागा ,मेरी मुंड़ेर पर
और नही आता है कोई
अतिथि देव भी
अब मेरे घर पर ॥
आगंन के विशाल वृक्ष पर बैठकर
ेरो पक्षी शोर और बीट कर
अब नही परेशान करते है दादी को ,
क्योकि
आज न तो मेरी दादी है
न वह वृक्ष है ,न वह आंगन है
न ही वे पक्षी है ॥
हर रोज सुबह ,शाम
़ेर सारी पत्तियो और बीट को ,
बुहारते और बडबडाते हुए
दादी उन पंक्षीयो को
आंगन खराब करने के लिए
बददुआऍं देती थी ॥
तब
उसे नहीं मालूम था कि
उसकी बददुआ इतनी जल्दी
काम कर जायेगी ॥
अब
न तो चिडिया चहचहाती है
न कोयल कुंहुकती है
न कबूतर गुटरगूं करता है
तोता और मैना खामोश है
सोन चिरैया और गोरैया को छोड़ो
कव्वे की कर्कश ॔कांवकांव’ को भी
तरस गये है कान ॥
चारो और ़़़़़क्रित्रमता की है भाँय भाँय
नेता,अभिनेता और धनवानो ने
फैला रखा है चुग्गा चंहुं और,
कहीं भी अवकाश नही है
इन्सान के लिए ॥
आकाश में विज्ञान का विकिरण
लील गया है, पक्षियो को ,
जमीन पर इन मायावी मक्कारो का विकिरण भी
लगता है किसी दिन दिखायेगा अपना जलाल ,
और लील जायेगा हम सभी को ॥
उपर वृक्षो पर
पक्षियो के घोंसले नही बचे है
और, नीचे लगता है
केवल !
केवल,हमारे
खाली घोंसले ही बचेंगें ।


-.गिरीशनागड़ा

मंगलवार, 11 मई 2010

girishnagda ki kavita: पानी को प्यासी इस धरती पर अमृत के सपने मत लादो

girishnagda ki kavita: पानी को प्यासी इस धरती पर अमृत के सपने मत लादो

पानी को प्यासी इस धरती पर अमृत के सपने मत लादो

ओ मेरे मुल्क के मालिको
पानी को प्यासी इस धरती पर
अमृत के सपने मत लादो
पानी को प्यासी इस धरती को
बस थोड़ा सा पानी पिला दो
पानी को प्यासी इस धरती पर
तुम अमृत के सपने मत लादो ॥

लेकिन मैने देखा है
अमृत के सपनो के बीच
अन्याय शोाण की मुठि्यो में भींच
कौन कौन से जुल्म नही किये
बस इतना जरा हमे बता दो
पानी को प्यासी इस धरती पर
अमृत के सपने मत लादो ॥

राट के कर्णधारो तुम
इस मां के भूखे बच्चो को
दूध न दे सको,
तो कोई बात नही
सिर्फ आटा ही घोलकर
ईमानदारी से पिला दो ।
मगर सोने की कटोरी में
जहर पिलाने से तो बेहतर है
कि उनका गला दबा दो ॥

पानी को प्यासी इस धरती पर
तुम अमृत के सपने मत लादो
पानी को प्यासी इस धरती को
बस थोड़ा सा पानी पिला दो ॥






गिरीशनागड़ा

तुम्हारे आने की महक

तुम्हारे आने की महक
डॉ.गिरीश नागड़ा


मैं हर वक्त
हर क्षण
तुम्हारे प्यार,ऊर्जा का
तलबगार रहा हूँ।
मैं रहा हूँ
हर क्षण
प्यासा
तुम्हारे प्यार का।

तुम्हारे इन्तजार के
लम्हों को
ज‍ितना मैंने झेला है
सदियों सा
अहसास दे गया
वह इन्तजार।

मैं यहाँ जीवन-पथ पर
अकेला निपट
एकाकी खड़ा
झेल रहा हूँ
उस कड़ी धूप को भी
हँसते-हँसते,
क्योंकि
मुझे यहाँ से
दिखाई दे रही है
तुम्हारी पालकी की गुम्बज
और यहाँ की हवाओं में
आ रही है
तुम्हारे आने की महक।
Posted by girish.nagda

सिर्फ दो मुट्ठी राख

डॉ.गिरीश नागड़ा


जब-जब भी आँखें खोली हैं
आँखों की पोरें गीली हैं
नींद तो कभी आई ही नहीं
पर एक स्वप्न जीवन भर
आँखों में पलता रहा
बर्फ पिघलेगी कभी
क्रूर, गर्वित, उन्नत ठंडे
हृदयहीन समय की।
आएगा कभी
उस उष्मा का मौसम
जब मैं और तुम
हँस सकेंगे
सारी फिजाँ को जी भरकर
प्यार करते हुए।
गले लगते-लगाते हुए
महसूस कर सकेंगे
अपरिमित हर्ष।
हमारे बीच,
कहीं ईर्ष्या, विद्वेष,दर्प
घृणा,नफरत और अहंकार
मेरा, तुम्हारा
धर्म, धन, सम्पदा,
देश, राज्य, नस्ल और भाषा का
कहीं कोई भेद न रहेगा
हम देखेंगे
कुदरत की हर नियामत को
कृतज्ञता के झरोखों से
और आती हुई प्राणवायु को
नथूनों में भरकर
छाती को फूला सकेंगे
जीवन के हर क्षण को,
अमृत-सा पी सकेंगे
पूरे-पूरे आदमी होकर जी सकेंगें
क्योकि हम जानतें हैं
हमारा अपना सच
सिर्फ दो मुट्ठी राख है
वह भी हमारी नहीं
इसी जहाँ से हमने पाई है
और वह भी
यहीं रह जाएगी।
by girish.nagda

मंगलवार, 4 मई 2010

जानवर और इन्सान

एक जीवन
एक जानवर/ एक इन्सान
जानवर / निरीह, मूक, व असहाय ।
काटा,चमड़ा उतारा।
लटका दिया दुकानदार ने
इन्सानो के बाजार मे
इन्सानी भूख के लिए ॥
इन्सान / विश्व शांति, विश्वबंधुत्व
अहिंसा प्रेम ,करूणा
संवेदनाओं का अथाह सागर
आह!सागर
सागर / गागर
गागर/सागर ॥
एक हत्या एक जानवर/ एक इन्सान
बहता खून, तड़फडाता शरीर
खून की लाली और
कटने का दर्द
दोनो एक है ,मगर
एक के लिए है आंसू
दूसरे के लिए है
एक क्रूर मुस्कान ॥
एक हत्या एक जानवर/ एक इन्सान
इन्सान हाय कलेजा /
कितना पत्थर,कठोर,निर्मम
आलोचनाएं, भत्सर्नाएंऔर सजाएं
जानवर हाय कलेजा/
कितना लजीज,स्वादिष्ट और उम्दा
कृपादृटि,प्रशंसा,और पुरूस्कार ॥

इन्सान/जिसका खाया,
उससे किया दगा
जानवर/जिसका खाया,या न भी खाया
उसके लिए दे दिया सर्वस्व ॥
जानवर तो पशु है
पशु / हिंसा ,वहशीपना,असहिष्एाुता
पशु/ न तरतीब,न तहजीब न तमीज
पशु/न भूत, न वर्तमान,न भविय
पशु/न इतिहास,न सभ्यता, न संस्कृति
पश्।ाु/कुछ भी नहीं/सब कुछ
सभी कुछ ।
इन्सान/ सब कुछ/सभी कुछ
परन्तु कुछ भी नहीं
ओछा,कृतघन व नंगा ॥
... गिरीश नागड़ा