गुरुवार, 18 जुलाई 2013

देश में गरीबों की संख्या घटने व विकास के योजना आयोग/सरकार के दावे आयोग के आँकड़े गरीबों/देश के साथ  सरासर धोखा है। गरीबों के आँकड़ों / योजनाओ मे गंभीर विसंगतियाँ है। गरीबी हटाने के लिये जो सरकार में बैठे लोग योजनाएं बनाते है उन्हे दरसल पता ही नही होता कि गरीबी होती क्या है या वास्तविक समस्या क्या है, कहां है और उसका वास्त्विक हल क्या हो यह समझने की रूचि और संवेदना ही नही है यह आउट आँफ़ कवरेज एरिया है ? उन्हे तो बस गरीबी हटाओ की मद का बजट प्रावधान चाहिये और उन्हे उसकी बन्दरबांट कर लीपापोती करना है यही उनका लक्ष्य है बस !
सरकार गरीबों के आँकड़ों से बहुत दुखी और परेशान है इस परेशानी से सदा के लिए निज़ात पाने के लिए  मेरे कुछ सुझाव है अगर सरकार मेरे सुझाव मान लेती है ( जैसे कदम नीति रीती  पर वह चल रही है बस उसमे कुछ डिग्री  का ही फर्क है ) तो सरकार की इस विषय में समस्या सदा के लिये समाप्त  ही नही बल्कि एक वरदान बन जाएगी

प्रस्तुत है इसी सन्दर्भ में यह् व्यंग कविता -



गरीबी हटाओ एक महान कार्यक्रम.... ? ( व्यंग कविता )....गिरीश नागड़ा





सरकार को चाहिए कि वह

गरीबी की रेखा के नीचे भी

एक रेखा खींच दे

जिसके नीचे आने वाले इन्सान को

इन्सान नही माना जाए

दरअसल वे तो बोझ है

इस धरती पर

इसलिए नही होना चाहिए उन्हे

जिन्दा रहने का अधिकार ॥

सरकार को चाहिए कि वह

खोल दे उनके लिए भी एक बूचड़खाना

जिसमे

उनको पकड, पकडकर

सफाई का पूरा ध्यान रखते हुए,

सफाई से काट़ दिया जाए ॥

जिन्हे गरीबी की महान रेखा के

नीचे रहने योग्य भी नही पाया गया है

जिन्हे

मुफ्त की जमीन,

आवास, सडक,प्रकाश,पानी, नाली

और एकबती का मुफ्त बिजली कनेक्शन

बैंक ऋण, निराश्रित सहायता, ऋण राहत,माफी,

आदि, गरीबो की , ढ़ेरो सुविधाओ का

लाभ लेने की भी

क्षमता, योग्यता,या शउर नही

जिनके पास

अपनी निजी या संयुक्त परिवार की

मलिकियत वाली ,किराये की

अतिक्रमण,या कही कब्जा कर हथियाई गई छत नही

जिनकी अपनी यूनियन नही

जिनको अपने अधिकारो के लिए

बंद, प्रदशर्न,हडताल तक

करने की तमीज नहीं

जिनका कोई धर्म संप्रदाय नही

जिनके पास गरीबी रेखा तक का, राशनकार्ड नहीं

जिनका वोटर लिस्ट में नाम नही

जिनका वोट नही

उनकी गणना नही

उनका समीकरण नही

अर्थात वे इन्सान ही नही ॥

सरकार को चाहिए कि वह

इन्हे इन्सान की परिभाषा से बाहर करे

ओर इन्हे घोषित करे, कृषिफसल

कुंवारी मांए सडको पर अनवरत

उत्पादित करती रहे यह कृषिफसल

ताकि इस कृषिफसल को हमारे बूचडखानो में काट कर

इनके मांस को

पांच सितारा होटलो में

मेरे मुल्क के जागीरदारो, ईदीअमीन के भारतीय संस्करणो को

और उनके सम्मानित मेहमानो को

हमारे देश की विशष्ट डिश के रूप में

सर्व किया जा सके ॥

इस कृषिफसल की खोपडी

और शरीर के अन्य महत्वपूर्ण अवयवो का

निर्यात किया जा सके,विकसित देशो को

जहाँ से प्राप्त हो सके

भारी मा़त्रा मे, कींमती विदेशी मुद्रा

ताकि हम चला सके

और अधिक सुविधा व गति के साथ

गरीबी हटाने के हमारे

महान कार्यक्रम ॥



- गिरीश नागड़ा

शनिवार, 12 जनवरी 2013

बाते तो बड़ी अच्छी कर लेते हो
पर बातो की गहराइयों में
जाने की ताब और आब
न तुममे है न इनमे है ।।

नमाजी बनकर रोज़े रखकर
 मोमिन तो बन गए
पर इन्सान  बनने की ताब और आब
न तुममे है न इनमे है ।।

दुनियादारी निभा रहे हो तो
दुनिया दार ही रहो
दिल को दिल से
मिलाने की ताब और आब
न तुममे है न इनमे है ।।

तुम क्या हो ,क्या है तुम्हारा वजूद
जान लो ईमानदारी के एक
झोंके से बिखर जाओगे
घना दरख़्त बनने की ताब और आब
न तुममे है न इनमे है ।।

मत करो ज़िद क़रीब आने की
किसी मजलूम को लूट कर
चाहे हाजी भी बन गए
दिल को दिल से
मिलाने की ताब और आब
न तुममे है न इनमे है ।।

ऱोज सॊ चूहे खाकर भी तुमने
हज तो कर लिया
अपने नाखूनों को छुपाकर
मुझसे आखँ मिलाने की ताब और आब
न तुममे है न इनमे है ।।
- गिरीश नागडा

मंगलवार, 15 मई 2012

अब पछताए होत क्या ?


अब पछताए होत क्या ?


अब पूछ रहे हो ,सोच रहे हो
कि राह कौन सी जाऊ मै
अगर समय से पूर्व जाग जाते
तो यूँ  चोराहे पर लुटता नहीं चीर
दरबारियों स्तुति गानों से उपजी
आत्ममुग्धता में खो न जाते
तो प्यादे से नहीं पिटता यूँ वजीर ||
स्वयं को सर्वोपरिय मानकर
अहं भाव में यूँ डूबे न होते
विरक्ति रचने का विचार
पश्चाताप के साथ करना न पड़ता
दृढ निश्चय कर राष्ट्र हित के मुद्दों पर
अटल अगर रहते अटल
तो यूँ सपना जन्म लेकर मर न पाता
घुटने नहीं टेकते राष्ट्र के स्वाभिमान के मुद्दों पर
तो मधु ऋतु ,में बाग कदापि यूँ झर न पाता ||
आप और आपके दरबारी
आम जन से /सच्चे मन से / जुड़ पाते
उनकी व्यथाओ कि पीड़ा को पढ़ पाते
तो न तिनके बिखरते
न नयी सृष्टि रचना कि चिंता में
यूँ स्वयं को डूबने को विवश पाते ||
जिस विश्वास के साथ सौंपा था राज आपको दिल्ली का
उस विश्वास को नहीं दिखाते पीठ
उस विश्वास की सत्यनिष्ठा से रखते लाज
प्रश्न ही नही उठता उधारी का न घाटे का आज ||
राष्ट्रहितो की सतत कर उपेक्षा
अंतरराष्ट्रीय लोकनायक बनने की भूख के चलते
सतत सर्व प्रशंसनीय होना चाहा था आपने
आपको तो पता ही है कि
दो कश्ती में  करने वाले सवारी
कितना भी हिसाब जोड़े
न घर के रहते है, न घाट के ||

-गिरीश नागडा

राह कौन सी जाऊ मै ?


राह कौन सी जाऊ मै  ?
(अटल बिहारी वाजपेई )
 अटलजी कि कविता सत्ता से हटने के बाद -२४ मई २००४ को समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई थी


राह कौन सी जाऊ मै  ?
चोराहे पर लुट-ता  चीर
प्यादे से पिट गया  वजीर
चलूं  आखिरी चल की बाज़ी
छोड़ विरक्ति रचाऊ मै
राह कौन सी जाऊ मै ?
सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु ,में ही बाग झर गया
तिनके बिखरे हुए बटोरू या
नवसृष्टि सजाऊ मै ?
राह कौन सी जाऊ मै  ?
दो दिन मिले उधार में
घाटे के व्यापार में
क्षण - क्षण का हिसाब जोडू या
पूंजी शेष लुटाऊ मै ?
राह कौन सी जाऊ मै ?

- अटल बिहारी वाजपेई
17 मई 2004
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सोमवार, 26 मार्च 2012

नहीं बिलकुल नहीं बी जे पी अपने जन्म से लेकर आज तक कभी इमानदार नहीं रही न तो सत्ता में रही तब न विपक्ष में है तब ,सच पूछा जाय तो बी जे पी में कभी कोई ठोस नेतृत्व रहा ही नहीं . बेईमानो को निकाल बहार करने की ताकत, दृढता कभी नहीं रही और इमानदार का साथ देने की ताकत, दृढता भी कभी नहीं रही मेरा दृढ़ मत हे कि अगर बी जे पी ईमानदारी पूर्वक अपनी भूमिका निभाती तो आज इस देश कि दशा और दिशा कुछ और ही होती .हारने के बाद अटलजी ने एक कविता लिखी थी उसका मैंने कविता से ही जवाब दिया था यहाँ उसका अवलोकन भी मौजू रहेगा प्रस्तुत हे नेक्स्ट पोस्ट में दोनों कविताऐ - गिरीश नागडा

सोमवार, 19 जुलाई 2010

क्या तुम्हे भी कभी राष्ट याद आती है ?

मुझे राष्ट की व्यथा बहुत सताती है
आज की कटु यथा बहुत सताती है
राष्ट पर लटक रहे
खतरो की चिन्ता कभी सताती है ?
क्या तुम्हे भी कभी राष्ट याद आती है
राष्ट की व्यथा बहुत सताती है ...?

किसी त्योहार की उमंग नही है
दिल में मनोरंजन की तरंग नही है
किसी खोल में रूची नही है
देर रात तक नींद न मुझको आती है
क्या तुम्हे भी कभी राष्ट याद आती है
राष्ट की व्यथा बहुत सताती है ...?

पदासीन पथप्रदर्शक और रक्षक
सब झूठे से लगते है महान आत्माओं के
अजादी से उम्मीदो के
सारे सपने झूठे से लगते है
नेताओ कें हर भाषण से
झूठ बनावट की बू आती है
क्या तुम्हे भी कभी राष्ट याद आती है
राष्ट की व्यथा बहुत सताती है ...?

शुक्रवार, 25 जून 2010

तुम्हारी मुस्कान से

लग रहा था
सभी कुछ भयावह
छूट रहा था मन का धैर्य
पथराने लगी थी आंखे
नही बंध पा रहा था मन
किसी भी माया में
खो चुके थे
समस्त आकार्ण,अपना रूप ॥

ना जाने कितने दिनो तक
ऐसी एकरस, नीरस रही जिन्दगी
होले होले दिन बदले तारीखे भी बदली
फिर अचानक कुछ ऐसा हुआ
आकाश पर छाये बादल हटने लगे
शहर का मेौसम बदलने लगा
और तुम्हारे चेहरे पर लौट़कर आई मुस्कान
बाग लहराया कलियाँं चटकी
और फूल भी खिलखिलाने लगे
आंँखो आंँखो मे गुपचुप बाते हुई
बर्फ पिघलने लगी
तमाम शिकवे शिकायते बह गई
भय बंधन तिरोहित हुए
नजरे भी चंचल होने लगी
मन फिसलने लगा
कल तक जो डूबा था,
असीम गहरे दर्द में
वे सारे घाव भरने लगे
मन नैतिक मर्यादाओ के बंधन को लांघने,
मिलन के गीत गाने के लिए मचलने लगा
एक तुम्हारी मुस्कान से
सारा का सारा जहाँं
खुशनुमा लगने लगा ॥

गिरीशनागड़ा