लग रहा था
सभी कुछ भयावह
छूट रहा था मन का धैर्य
पथराने लगी थी आंखे
नही बंध पा रहा था मन
किसी भी माया में
खो चुके थे
समस्त आकार्ण,अपना रूप ॥
ना जाने कितने दिनो तक
ऐसी एकरस, नीरस रही जिन्दगी
होले होले दिन बदले तारीखे भी बदली
फिर अचानक कुछ ऐसा हुआ
आकाश पर छाये बादल हटने लगे
शहर का मेौसम बदलने लगा
और तुम्हारे चेहरे पर लौट़कर आई मुस्कान
बाग लहराया कलियाँं चटकी
और फूल भी खिलखिलाने लगे
आंँखो आंँखो मे गुपचुप बाते हुई
बर्फ पिघलने लगी
तमाम शिकवे शिकायते बह गई
भय बंधन तिरोहित हुए
नजरे भी चंचल होने लगी
मन फिसलने लगा
कल तक जो डूबा था,
असीम गहरे दर्द में
वे सारे घाव भरने लगे
मन नैतिक मर्यादाओ के बंधन को लांघने,
मिलन के गीत गाने के लिए मचलने लगा
एक तुम्हारी मुस्कान से
सारा का सारा जहाँं
खुशनुमा लगने लगा ॥
गिरीशनागड़ा
शुक्रवार, 25 जून 2010
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2 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया.
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