शुक्रवार, 25 जून 2010

तुम्हारी मुस्कान से

लग रहा था
सभी कुछ भयावह
छूट रहा था मन का धैर्य
पथराने लगी थी आंखे
नही बंध पा रहा था मन
किसी भी माया में
खो चुके थे
समस्त आकार्ण,अपना रूप ॥

ना जाने कितने दिनो तक
ऐसी एकरस, नीरस रही जिन्दगी
होले होले दिन बदले तारीखे भी बदली
फिर अचानक कुछ ऐसा हुआ
आकाश पर छाये बादल हटने लगे
शहर का मेौसम बदलने लगा
और तुम्हारे चेहरे पर लौट़कर आई मुस्कान
बाग लहराया कलियाँं चटकी
और फूल भी खिलखिलाने लगे
आंँखो आंँखो मे गुपचुप बाते हुई
बर्फ पिघलने लगी
तमाम शिकवे शिकायते बह गई
भय बंधन तिरोहित हुए
नजरे भी चंचल होने लगी
मन फिसलने लगा
कल तक जो डूबा था,
असीम गहरे दर्द में
वे सारे घाव भरने लगे
मन नैतिक मर्यादाओ के बंधन को लांघने,
मिलन के गीत गाने के लिए मचलने लगा
एक तुम्हारी मुस्कान से
सारा का सारा जहाँं
खुशनुमा लगने लगा ॥

गिरीशनागड़ा

शनिवार, 5 जून 2010

इन्तजार

मै हर वक्त
हर क्षण
तुम्हारे प्यार,उर्जा का
तलबगार रहा हूं।
मै रहा हूं
हर क्षण
प्यासा
तुम्हारे प्यार का ॥

तुम्हारे इन्तजार के
लम्हो को
जितना मैने झेला है
सदियो सा
एहसास दे गया
वह इन्तजार॥
मै यहॉँ जीवन पथ पर
अकेला निपट
एकाकी खड़ा
झेल रहा हूं
उस कड़ी धूप को भी
हंसते हंसते,
क्योकि
मुझे यहाँं से
दिखाई दे रही है
तुम्हारी पालकी की गुम्मद
और यहाँं की हवाओ मे
आ रही है
तुम्हारे आने की महक ॥

गिरीशनागड़ा